Tuesday 3 March 2020

दिल लगा खाटू के साँवले सरकार में .....।


तुझे पाने की खातिर मैंने दिन बहुत गुजार दिये ।

रात भर जग कर आसुओ के दीये जला दिए ।

हम रट लगाये है कि तुम मिलने कभी आओ , 

आप आने ही वाले थे , लेकिन मैंने दिये बुझा दिए ।।

दीदार में मैंने , बहुत आँखों को बचाया है ,

कलियों को खिलने से, मैंने रोज मनाया है।

लेकिन हर बार ये हो नही,  इसके खातिर मैंने,

तेरे दर पर आकर आज , ये सजदा सजाया है।।

मोहब्बत है श्याम तुझसे , मिलने की तलब बढ़ती जा रही है

आंखे तेरे दर्शन को तरस गई, लगता हैं अब पथरा रही है ।

तू दे दे दर्शन इस बार तेरे दरवाजे पर सिर टीका रखा है ,

वरना तेरे आने का क्या ? अब मेरी तो जान जा रही है ।।

हर शख्स चाहता है तेरा रूप निहारना, तू ऐसा ही है ,

हर शक्श चाहता है तुझे पाना , तू ऐसा ही है ।

हर शख्स को तू मिलता नही , ऐसा क्यों है सावरे,

जिस शख्स को तू मिलता है, लगता है मुझमें वैसा नही हैं ।।


"मैं" हुँ इसलिए तू नही है , क्या यही एक वजह है ,

हर दिल मे तू समाया है , इतनी मुझमे में भी समझ है ।

जब दिल में *मैं* ना रहा तो दिल मे श्याम आ जाएंगे , 

श्याम आ गए तो फिर दिल मे मैं मैं को कहा जगह है ।।

मैं हुँ तो श्याम कैसें आ पाएंगे मेरे इस दिल के दरबार मे,

मैं को कैसे हटाऊँ मेरे इस शानो खूबसूरत बहार में ।

मैं को हटा *वेद* अब तेरे इस झूंठे देह संसार से  

अब दिल लगा केवल खाटू के सावले सरकार में .।।





Saturday 18 November 2017

जीवन बन्धन मुक्त होना चाहिए .....

जीवन में जब कोई बंधन होता है तो बहुत ही समस्याओं का सामना करना पड़ता है । सभी जीवो को स्वतंत्रता पसंद आती है । स्वतंत्रता ही जीवन का सबसे बड़ा आनंद है । मुझे यह अहसास बहुत बार हुआ है । मैंने मेरे जीवन में इसको कई बार अनुभव भी किया है ।लेकिन अभी तक पूर्ण स्वतंत्रता नही मिली है कभी पढ़ाई का बंधन कभी लक्ष्य का बंधन कभी अपनों का बंधन कभी परिवार का बंधन जब सब बन्धन समाप्त होने लगे तो फिर जीवन के एकाकीपन का भी भयंकर बन्धन सा महशुस होने लगता है ।

आज मुझे एक वाकया याद आ रहा है जिसने मुझे उस वक्त ही अहसास करवा दिया था कि बन्धन कितना भयानक हो सकता है लेकिन उस वक्त मेरे समझ में यह बात नही आई जो आज समझ में आ रही है । एक कहावत है कि हम अपनी आँखों से खुद को नहीं देख सकते । हमारी खुद की आँखों से खुद का दीदार नही होता है । हम अपनी नाक को लगातार नहीं देख सकते । क्योंकि प्रकृति ने हमे ऐसा नही बनाया है कि हम इतनी नजदीक की वस्तु को देख सके । मेरे कहने का तात्पर्य है कि हम जिस वस्तु के या किसी भी व्यक्ति से जितने नजदीक होते जाते है वह उतना ही कष्ट देने वाला लगने लगता है । हमें प्रकृति ने कुछ इस तरह का ही बनाया है ।

प्रकृति ने सभी प्राणियों को श्वास लेने के लिए जगह बनाये रखने की जरुरत बताई है । हमारे सभी के अंदर एक दूसरे से थोड़ी दूरी बनाए रखने की बहुत ही जरूरत बताई है हम जितने नजदीक रहेंगे अपने आप में बन्धन महशुस करने लगेंगे  और जब ज्यादा नजदीक होंगे तो विकास भी संभव नही होगा । विकसित होने के लिए एक निश्चित दुरी होना जरुरी है जिस प्रकार किसी पेड़ पौधों के विकास के लिए दूरिया जरूरी है । उसी प्रकार मानव के विकास के लिए या सम्बन्धो के विकास के लिए कुछ निश्चित दूरिया बहुत ही जरुरी है ।

जब हम ज्यादा नजदीक रहते है तो बन्धन महशुस करने लगते है और हमारा विकास अवरुद्ध हो जाता है । कभी कभी तो जब उस बन्धन को जबरन अलग करने की कोशिश करते है तो बहुत ही हानि भी उठानी पड़ती है । मुझे आज भी मेरे बचपन की एक घटना याद है जिसमे मैंने यह समझ लिया था कि नजदीकियां प्रेम बढाती है जबकि बाद में पता चला कि नजदीकियां तो बहुत नुकसान भी करवा सकती है ।

बात उस समय की है जब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था । मैं और मेरा बड़ा भाई,  दोनों जने स्कूल से छुट्टी होने के बाद और सरकारी छुट्टी के दिन हमारे घर में रहने वाली दो भैसों को खेत में चराने जाते थे । हम दोनों भाइयो में बहुत ही प्रेम और लगाव था हम एक दूसरे के बिना बहुत ही कम रह पाते थे । बचपन था । बचपन का लगाव आज तक अनवरत है । लेकिन अब हम ज्यादा नजदीक नही है बस कभी कभी ही मिल पाते है । हमारा प्रेम दूरियों की वजह से पहले जैसा तो नही है लेकिन फिर भी कम नही है । लेकिन उन दिनों बहुत ही ज्यादा था हम एक दुसरे के गले में बांहे डाले ही घूमते फिरते थे । सारे सारे दिन साथ साथ ही रहते थे ।हमारा खेलना खाना सब साथ साथ ही होता था । और हम चाहते थे कि हमारी भैंसे से भी साथ साथ ही रहे । अलग न हो । हमारी तरह ही गलबाहे डाले डाले ही खेत में घूमती फिरती रहे और घास भी साथ साथ ही खाये । हम बार बार उनको एक जगह कर देते लेकिन व थोड़ी देर  साथ साथ चरती और फिर अलग हो जाती । यह ही प्रकृति का नियम है कोई भी सजीव लगातार साथ साथ नही रह सकता । अलग रहना , थोड़ा दूरिया बनाना स्वाभाविक है । लेकिन मुझे यह बात अच्छी नही लगी । बचपन था , नहीं जान पाया कि क्या नियम है क्या स्वभाव । मैंने दोनों की पूंछ को पकड़ा और बाँध दिया । दोनों भैंसे अब साथ साथ आराम से एक ही जगह चारा खा रही थी हम दोनों भाई आराम से खेल रहे थे । एकदम मस्ती में, बिना किसी बात की परवाह किये । लेकिन थोड़ी ही देर बाद वे दोनों भैंसे अपना अपना रास्ता नापने लगी । अब उन्हें वह नजदीकियां बन्धन लगने लगी । और वे अलग होने के लिए छटपटाने लगी ,मैंने और भाई ने बहुत कोशिश की उन्हें साथ साथ रखने की,उनका सिर और सींग पकड़कर नजदीक लाने के बहुत प्रयास किये , लेकिन जब बन्धन तोड़ने की कोशिश होने लगती है तब फिर कोई भी प्रयास उस बन्धन को रोकने में सक्षम नही होता है । ऐसा ही वहां पर हुआ । बन्धन टूट गया और  जिनमे ज्यादा ताकत थी उसने ज्यादा जोर लगाया और जिसमें कम ताकत थी उसकी पूँछ टूट गई और खून ही खून बहने लगा । इतनी भयंकर पीड़ा के बाद भी उनमें जो स्वतंत्रता का आनन्द अनुभव हो रहा था वह बन्धन में नही था ।

प्रेम अपनी जगह है और प्रेम में जो बन्धन है वह अपनी जगह है । एक दूसरे में प्रेम होना चाहिये लेकिन प्रेम में, रिस्तो में, व्यवहार में , जो नजदीकियां होती है वे यदि बन्धन बन जाती है तो फिर रिस्ते , सम्बन्ध, प्रेम और व्यवहार नही रह पाते है ।

जीवन कितना ही प्रेमपूर्ण हो लेकिन हमेशा जीवन बन्धन मुक्त होना चाहिए । जब प्रेम में , रिस्तो में , सम्बन्धो में , या व्यवहार में बन्धन महशुस हो तो एक बार थोड़ी सी दुरी बना लेने में ही फायदा है ।वरना परिणाम भयंकर हो सकते है ।

Sunday 2 April 2017

बहुत मुश्किल है तेरे बिन......

सब कुछ कर सकता हूँ , तुम जाओ रह लूंगा तेरे बिन।
कहना सरल था, पर रहना, बहुत मुश्किल है तेरे बिन ।।

जब बैठी तुम सहमी सी , ट्रैन की भीड़ भरी सीट पर ।
अपने आपको समझाती सी,मेरी नजर थी पीठ पर ।।
तू कह रही थी मुझको , खाना खाने को प्रतिदिन ।
कहना सरल था, पर रहना , बहुत मुश्किल है तेरे बिन।।

ठंडा खाना मुझे भाता , तुम तो गरमा गरम देती आई ।
तेरे जाने के बाद, आज , ठंडी रोटी मुझे नही भायी ।।
गरम बना कर भी खाई, तेरी जैसी नर्म नही लेकिन ।
कहना सरल था .........

बर्तन साफ , रगड़ रगड कर , बिलकुल चमका दिए ।
तुम बिन जीने की कोशिश ने , घर को भी साफ किये।।देखा गिलास एक तो , चिकनाई छुपकर करे तोहिंन।
कहना सरल था ........

झाड़ू भी लगा ही लेता हूँ  , कपड़े धोने को भी बैठ गया।
तुम बिन जीने का , सारा मैथर्ड अब मैं सीख गया ।।
पोंछा लगाना दिखता सरल है , पर लगता है कठिन।
कहना सरल था ...

अब क्या करूँ ? तुमको तेरे माता पिता से प्यार है ।
भाई भोजाई और,  भतीजा भतीजी से भी प्यार है ।।
तुम्हारे प्यार में मैं कह रहा, अब आओगी किस दिन।
कहना सरल था ...

ये प्यार है "वेद" का , तेरे बिन जीने का एक बहाना है।
तुम मिलो अपने प्यारो से, मेरे संग जीवन बिताना है।। दूर रहकर भी ,आँखों में घूम रहा है सिर्फ़ तेरा सीन।
कहना सरल था ......

#Dr Vedprakash kaushik

Wednesday 18 January 2017

बसा किसी और को दिल में .....!

देखते ही उसको , दिल मेरा, ना जाने  क्यों मचलता है।
मै जब भी देखूं उसको तो ,  मुझे ऐसा क्यों लगता है ।।

कशिश सी उठती है,  उसका सामीप्य पाकर ।
क्या करू कैसे कहूं, उसको , समीप उसके जाकर।।

जब कभी वो नहीं थी, तब भी यह नादां यूँ कहता है ।
क्यों यह बार बार  , उसके लिए तड़फता रहता है ।

कभी भी उसकी बातों से, जीवन संवार न पाया  । हर बार उसको  मैने , अपने से जुदा ही  पाया   ।।

कभी वो कभी कोई और , मेरे जेहन में घूमती रही हैं।
उसके जैसी आज तक , हजारो आती जाती रही है ।।

मगर दिल तो कभी एक जगह टिकता ही नही था ।
वो समझने रूकती ,मै पलभर भी रुकता नही था ।।

आती रही जिंदगी में मेरे,एक से एक दिल के करीब।
कभी कोई अमीर,कभी कोई जवां ,कभी कोई गरीब।।

मगर आजकल "वेद" , तुझको ये क्या हो गया है ।
कोई तुझे चाहता है नही, फिर भी कही खो गया है।।

कैसे कोई आकर, अपना आसिया बना सकता है।
किसी के बिना खुद, अकेले कैसे समा सकता है ।।

शायद वो पहले से ही समाया हुआ था मेरे दिल में ।
मुझे कभी कभी ,आहट सी होती थी इस दिल में ।।

सभी में मुझे प्यार की तलाश थी , पर मिला नही ।
आज जब मिला तो , लगा किसी से कोई ग़िला नही।।

अब तो "वेदप्रकाश" , कुछ इस तरह बदल गया है ।
किसी और को बसा दिल में, खुद कही निकल गया है ।।

Saturday 19 November 2016

मन में उमंग है

मन में उमंग है मेरे, कोई है ,जो जगत को चला रहा है।
मुझ जैसे पाखंडी को , पल पल कैसे सजा रहा है ।।
मन को छूने वाली सच्ची बाते, मुझको कह रहा है ।
अहंकार को कर परास्त , आज मुझे समझा रहा है।।

मै तो कितना बदल गया,किस तरह जीवन जी रहा हूँ ।
अपने पराये का भेद न था,सब अपना ही कह रहा हूँ।।

मैने बहुतो को दुःख दिया है , माटी पलीद करता रहा हूँ।
गुस्से का सैलाब उमड़ता था, जिंदगी घसीट ता रहा हूँ।।
आज लगता है सब गलत किया , क्यों किया पता नही।
उसकी एक नजर पड़ी तो , मै कही पर भी टीका नही।

वह बलवान, मै नादान, जीवन गवां के पूछ रहा हूँ ।
मै तो कितना बदल गया, किस तरह जीवन जी रहा हूँ।।

सुहाता था क्या ? मुझे, कोई आँख उठाके तो देखले ।
जुबान खींच लू उसकी ,गर कोई कह कर तो देखले ।।
काम, क्रोध, मद लोभ ,नरक से सब मुझमें साकार थे ।
एक पल भी सुख़ी ना था, चाहने वाले बड़े लाचार थे ।।

उसने सिखाया जीवन क्या है,अब उसकोे  पूज रहा हूँ।
मै तो कितना बदल गया, किस तरह जीवन जी रहा हूँ।।

वो कौन है कैसा है किसने उसे देखा है,कोई तो बता दे ।
उससे मिलकर जीवन,क्यों सँवरता है ,कोई तो बता दे।।
मिला नही अब तलक, पर खोजकर रहूँगा एक दिन।
मिलेगा मुझको विश्वास है, दुनिया कहा है उसके बिन।।

अब उमंग है तरंग है , मै बदला बदला सा जी रहा हूँ।
मै कितना बदल गया ,किस तरह जीवन  जी रहा हूँ।।

हिलोरे उठ रही है , प्रेम की कोई धार सी निकल रही है।
तब सिर्फ "वेद" था ,अब दुनियां "प्रकाश"  कह रही है।।
कभी ज्ञान नही था , अब ज्ञानपुंज सा चमक रहा हूँ।
मेरे प्रभु अब तेरी शरण में , मै ये जीवन जी रहा हु।।

कोई तो समझो मेरा चिंतन , क्या मैं कही बहक रहा हूँ।
मै कितना बदल गया,किस तरह जीवन जी रहा हूँ।।

डॉ वेदप्रकाश कौशिक