Wednesday 25 February 2015

मस्त फागुन की भयानकता.......

               आज उस बात को लगभग बीस साल हो गये है लेकिन मुझे तो कल की सी बात लगती है जब भी चेहरा देखता हुँ आंख के नीचे का दाग दिखाई देता है और मुझे उस भयानक रात की याद दिला जाता है
               उस वक्त मै दसवी कक्षा मे पढता था बोर्ड की परीक्षा होने वाली थी होली का दिन था होली को मंगल कर दिया गया था और सभी लोग सोने की तैयारी मे थे लेकिन शराबी और झगडालू प्रवृति के लोगो को नींद नही आती और ये लोग  तो ऐसे मोको की तलास मे ही रहते है कि कब  कोई त्योहार आये और हम झगडा करके माहोल खराब करे ऐसे लोगो की वजह से ही त्योहारो का जश्न फिका पडता जा रहा है लोग डरने लगे है कि कोई बवंडर ना होजाये,इसी डर की वजह से समझदार लोग जल्दी ही काम निपटाकर घर बंद करने की कोशीश मेरहते है
               गांवो मे होली का त्योहार बहुत ही धुमधाम से मनाया जाता था फाल्गुन का महीना एक अजब सी कशिश लेकर आता था इस महिने मे तरह - तरह के सांग निकालना, लोगो के साथ हंसी ठिठोली करना राजस्थान मे एक बहुत ही शानदार परंपरा थी पुरा फागुन का महिना रंगो से भरा हुआ होता था, रात भर बहिन बेटिया होली माता के गीत गाती थी .. होली ये तेरो ब्याह रचावा.... होली ये  तेरो लाम्बो टीको ..... चांद चढ्यो गिगनार हिरनी आथुणी जी आथुणी ...... आदि सुरिले गीतो से पुरा मोहल्ला गुंजता था ऐसे गीत हर मोहल्ले मे, हर गांव मे , हर ढाणी मे गुंजते थे, बच्चे भी कई प्रकार के खेल खेलते थे .. चोर सिपाही ... आईस पाईस ... ढाईकिलो... पिठु...लुख-मीचण्या.. आदि खेलो का लुफ्त उठाते थे , बडे-बुजुर्ग चंग और धमाल से फागुन का मजा लेते थे ,युवा लोग कई प्रकार के रूप बना कर लोगो के घर मे जाते और उनका मनोरंजन करते थे , झुठ-मुठ का बच्चा बनाकर वैध जी के घर चले जाते,एक दो जने साथ होजाते और बोलते कि- बच्चा बिमार हो रहा है जल्दी से देखो ,और जब वैधजी देखने को तैयार होते तो... सभी जोरसे हो हल्ला करके भाग जाते,बडा मजेदार होता था ये त्योहार, लेकिन अब तो एक दुसरे पर रंग डालना भी डरावना सा लगता है,मजाक तो करने का सवाल ही नही उठता,
                उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था किसी लडके ने मजाक मे किसी से कुछ ठिठोली करली और उसमे कुछ लडकियाँ भी थी उन्हे ये हंसी मजाक पसंद नही आया और फिर क्या था बात का बतंगड हो गया और कुछ शरारती तत्वो और शराबियो ने माहोल को जाति बिरादरी का रंग दे दिया और भयानक झगडा हो गया ,मै घर पर पढाई कर रहा था बाहर झगडे की आवाज सुनकर देखने के लिये जाने लगा तो माँ ने मना भी किया लेकिन जो लोग माता -पिता का कहना नही मानते उन्हे कष्ट तो उठाना ही पडता है मुझे  भी कष्ट झेलना पडा, बाहर झगडा देखने गया और एक पत्थर मेरी आंख पर आकर लगा और एक भयानक दाग दे गया जिसे मै अब भी रोजाना देखता हुँ.. जो मुझे इस मस्त फागुन की भयानकता को दिखता है..
               लेकिन मै अब कैसे समझाऊ कि हम वे गीत, वे खेल,वे सांग, वे चंग और धमाल आज के बच्चो को बताना चाहता  हुँ आज के बच्चे कैसे जानेंगे ये सब रंगीले राजस्थान की रंगीली परम्पराये... कब शुरू होंगी फिरसे.....

Saturday 21 February 2015

मै प्रगति पथ का पथिक हुँ.....

             
             इस कविता को मेरे परमपुज्य पिताजी वैद्य श्री माल चंद जी कौशिक ने लिखा है मेरे पिता जी ने जीवन मे बहुत ही तप किया था उसी का भाव यहा प्रगट किया गया है पुज्य पिताजी को मैने मेरा आदर्श माना है मुझे उनकी प्रत्येक कविता से मार्ग दर्शन मिलता है उनके गुरु जी आचार्य श्री राम शर्मा (गायत्री परिवार) पिताजी को अक्सर भालचंद्र कहते थे इस लिये उन्होने अपनी कविताये ज्यादातर वैद्य भालचंद्र के नाम से ही लिखी है भालचंद्र सच मे महादेव शंकर जी के पुत्र श्री गणेश जी का नाम है जो कि बहुत ही सरल और सादगी प्रिय देवता है उसी तरह पिताजी का स्वभाव भी बडा ही सरल और सादगी पुर्ण था पिताजी को हम सभी परिवार वाले बापुजी कहते है,  बापुजी हमेशा कहते थे कि "पिता कभी मरते नही है पिता हमेशा जिंदा रहते है अपने बच्चो के व्यवहार मे,विचार मे" अब बापुजी  इस दुनिया मे नही है लेकिन मेरे मन मे उनके विचार अभी भी है और मेरे पास उनकी लिखी कविताये है जिन्हे मै मेरे जीवन मे उतारने की कोशीश करता हू ,इन कविताओ मे जीवन का रहस्य छुपा हुआ है-
              मै प्रगति पथ का पथिक हुँ विपद नद से क्यो डरुंगा
               सूख कर रह जायेगा यह,आचमन जब एक लुंगा

         राह मेरी रोक ले तुफान ऐसा कौनसा है
          गा ना पाऊँ मै प्रगति का गान ऐसा कौनसा है

         दुष्टता का दमन प्रतिदिन शिष्टता से मै करूंगा
         मै प्रगति पथ का पथिक हूँ विपद नद से क्यो डरूंगा

               आ मिली है प्राण सरिता मे प्रबलतम धार कोई
                कर रहा है मर्म स्थल पर,आज तीव्र प्रहार कोई

                कह रहा है यह अंधेरा, क्यो बता छाया यहाँ
                तु ठगा सा देखता है, लुट गया पौरूष कहाँ

    आग धधकी है ह्र्दय मे, ज्योति बनकर मै जलूंगा
   मै प्रगति पथ का पथिक हुँ विपद नद से क्यो डरुंगा

                  वैद्य भालचंद्र जी कौशिक "वैद्य जी बाबा जी"

              और भी बहुत कविताये है जिन्हे मै जब समय मिलेगा तब शेयर करता रहुंगा ..