Sunday 27 December 2015

अब मेरी बारी है ...!

अब मेरी बारी है ...!


         मै पहली बार गांव से शहर मे आया था मुझे मेरे बडे भाईसाहब शहर मे छोड कर गये थे, मेरा मन नही लगता था उस वक्त मेरी उम्र होगी मात्र तेरह साल मै नवी कक्षा मे पढता था, मै कक्षा मे चुपचाप ही रहता था, सभी लोग मुझे अकेला देख कर कुछ हंसी मजाक मे मेरा मन लगाने की कोशीश करते थे,लेकिन घर और माँ बचपन मे कुछ ज्यादा ही याद आते है, मन की बात कोई भी सुनने वाला नही था, 

        बापुजी ने बस मे बिठाते समय कहा था – बेटा समय अनुसार सब कुछ बदल जाता है, शहर मे तुझे दोस्त भी मिल जायेंगे और मन भी लग जायेगा, यदि कुछ पढ लिख लेगा तो तेरा जीवन सुधर जायेगा, जीवन सुधारने के लिये मन लगाने का प्रयास कर रहा था, इंटरवेल मे सभी बच्चे खेल रहे थे, लेकिन मै अकेला सिढीयो मे बैठा था तभी एक लडका मेरे पास आया और मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे कुछ दिलासा देने के हिसाब से बोला- क्या घर की याद आ रही है ?,

        मै उसकी बांते सुनकर शायद रोने ही लगता लेकिन बापुजी की कही हुई बात याद आ गई कि दोस्त अपने आप ही बन जायेंगे, मुझे ऐसा लग रहा था कि अब यह दोस्त आ गया है, और यही मेरा दोस्त बन जायेगा, उसने मुझे बहुत ही प्रेम से कई बाते समझाई और  मेरा हाथ पकड कर मुझे घुमाने ले गया,वह इसी  शहर मे रहता था, वह अपने परिवार के साथ ही रहता था,  इंटर्वेल के बाद कक्षा मे भी मेरे साथ ही बैठा, मेरा मन कुछ हल्का होने लगा था,

        अब रोजाना वह मेरे पास ही बैठता और पढता था, हम दोनो सारे सारे दिन साथ ही रहते थे, अब ऐसा लग रहा था कि कठिन समय बीत गया है, जीवनसबसे बडा दुख अकेला पन ही होता है,  मै अब पुरे आत्म विश्वास से भरने लगा था, दोस्त मुझे अपने घर भी ले जाता था,वह इसी शहर का रहने वाला था मै किराये पर मकान लेकर रहता था, समय बीतता जा रहा था, और हमारी दोस्ती प्रगाढ होती जा रही थी उसके घर वाले भी खुश थे कहते थे कि हमारा बच्चा तेरे साथ रह कर होशियार होता जा रहा है वास्तव मे वह पहले एक बार फैल हो गया था, वैसे मै ने ऐसा कुछ भी नही किया था बस मेरे साथ रह कर उसका तथा उसके साथ रहकर मेरा  मनोबल बढ गया था और वह होशियार होता जा रहा था, और मै निर्भय,  वह गरीब तो नही था लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नही थी, लेकिन था बडा स्वाभिमानी, मेरा बहुत ही अच्छा और सच्चा दोस्त था, और अभी भी है

         अब उसकी शादी भी हो गई है, दो बच्चे भी हो गये है, ये कोई विशेष बात नही है मेरी भी शादी हो गई है और मेरे भी दो बच्चे हो गये है, उसने बीएड करली और मैं ने बी ए एम एस कर लिया है, उसने बीएड किया तब वह बहुत ही आर्थिक कमजोरी से गुजर रहा था उस वक्त मै ने उसका बहुत ही मनोबल भी बढाया और उसकी आर्थिक स्थिती को भी मजबूत करने की कोशीश की थी लेकिन यदि मन मे कोई कमजोरी हो तो पढाई ढंग से नही हो पाती, और वह भी बस बीएड पास करके आ गया और कम नम्बर के बिना उसकी नौकरी नही लग पाई 

        अब वह एक प्राईवेट स्कूल मे पढाता है और बी पी, सुगर, हेवी वेट, और अनिद्रा का मरीज हो गया है, रोजाना मुठ्ठी भर कर दवा खाता है, जब भी फोन पर बात होती है बहुत ही खुस होता है और मुझे भी बडी खुसी होती है, मुझे उसके साथ बिताये बचपन के सभी दिन याद है लेकिन वह शायद भूल गया है,क्योकि उसकी यादास्त बहुत ही कमजोर हो गई है,

        उसने उस वक्त मेरी बहुत मदद की थी मुझे उसकी मदद करनी चाहिये अब मेरी बारी है...




Sunday 22 November 2015

***महारत हासिल करनी है ....

***महारत हासिल करनी  है ....


        मुझे लिखने का बडा ही शौक है मुझे जब भी वक्त मिलता है मै लिखना ही पसंद करता हुँ लेकिन मेरा लिखा हुआ लोग पढते है या नही मुझे मालूम नही था जब मैं ने ब्लोग पर पोस्ट लिखना शुरू किया और लोग मेरे फोलोवर बनने लगे तब मुझे पता लगा कि मेरी लिखी हुई बांतो को लोग पढते है

        मै ने कल ही किसी दार्शनिक का कथन पढा था कि “यदि आप अपना मन पसंद काम कर रहे है तो आपको कही भी धन कमाने के लिये जाने की जरूरत नही है, आप लगातार अपना काम मन लगा कर करते रहे,और उस काम मे महारत हासिल करले, धन अपने आप आपके पास आ जायेगा”
मुझे यह बात बहुत ही पसंद आ गई, और मै ने इसे जीवन मे उतारने का मन बना लिया है, 


        मुझे ऐसी बहुत सी बाते याद है जो लोग किसी काम मे लग जाते है और उस काम  के विशेषज्ञ बन जाते है तो लोग उनको खोजते हुये आ जाते है, इसका एक उदाहरण अलवर के कम पढे लिखे एक व्यक्ति का  है उसे अपने मनपसंद काम ऐंड्रायड मोबाइल के लिये ऐप्पस बनाने  मे जब  आनंद आने लगा और उसके पास कोई खास सुविधाये नही  होने के बावजूद वह काम को करने लगा और  वह अपने काम का माहिर हो गया तो उसने वह करके दिखा दिया जिसे पढे लिखे इंजीनियर भी नही कर सके थे,काम  मे माहिर होने पर जब उसके बनाये ऐप्स को प्रधानमंत्री जी से सराहना मिली और रातो रात वह सुर्खियो मे आ गया और धन भी उसके पास चला आया,

         अब पता यह करना होता है कि मुझे सबसे ज्यादा पसंद क्या है इसके लिये ध्यान लगाना पडेगा कि क्या  काम सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, कहते है प्रकृति मे कोई भी वस्तु बिना काम के नही बनाई गई है संस्कृत मे एक श्लोक है “अमंत्रम अक्षरम नास्ति, नास्ति मूलमनोषधम, अयोग्य पुरूषो नास्ति ......” मतलब यह है कि  सभी के लिये कोई ना कोई काम जरूर तय किया हुआ  है जब आप और हम अपना मन पसंद काम करते है तो उस काम मे प्रकृति अपना पुरा सहयोग करती है, कहते है कि “जब किसी काम को सिद्धत से किया जाता है तो पुरी कायनात उसे पुरा करने  मे सहयोग करती है
 
         कुछ लोग जीवन भर भटकते रहते है उन्हे समझ मे ही नही आता कि मुझे क्या करना है और क्या नही जीवन निकल जाता है और बस हतासा हाथ लगती है, फिर कई गलत कदम उठा कर जीवन को नर्क बना लिया जाता है जिस काम मे यदि सफलता नही मिल रही है तो इसका मतलब यह है कि उस काम मे आपकी रूचि नही है जब रूची नही होगी तो काम को सही ढंग नही किया जा सकता इसी लिये कहते है  कि “असफलता का मतलब कि सफलता के लिये प्रयास पुरे मन से नही किया गया” बस यही बात है कि काम मे दिल नही लगा पाये,

         मेरे पिताजी कहते थे कि “बेटा काम वही करो जो तुम्हे आनंद की अनुभुति करवाये” मतलब साफ है काम मन पसंद का करना चाहिये, अब मुझे कुछ कुछ समझ मे आ रहा है कि मन पसंद काम मे महारत हासिल करनी है

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Friday 30 October 2015

अब ढींगे हाँकना बंद करो...

अब ढींगे हाँकना बंद करो....


          मै एक बच्चे को, जो खाना नही खाता था उसे भूख का महत्व समझा रहा था कि जब भुख लगती है ना, तो आदमी कुछ भी कर सकता है महाभारत के एक प्रसंग का भी जिक्र किया जिसमे बताया गया था कि जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था तब राजमाता गांधारी युद्ध भुमी मे विलाप कर रही थी भगवान कृष्ण ने बहुत मनाया और समझाया कि घर चलो अब विलाप करने से कुछ नही होगा लेकिन वह नही मानी,वही पर रोती कलपती रही रात होने लगी और भूख ने भी अपना प्रभाव दिखाना शूरू किया और गांधारी भूख से तडफने लगी लेकिन अब उस युद्ध भूमी मे भोजन कहा था चारो तरफ लाशो के ढेर पडे थे गांधारी भूख से तडफ रही थी वह उठी और भोजन की तलाश कर ने निकली उसे बेर की खुशबू आई वह झाड के पास गई और बेर तोडने के लिये हाथ बढाया लेकिन हाथ नही पहुँचा, तब उसने अपने बच्चो की लाशो का ढेर लगाया और उस पर खडी होकर बेर तोडने लगी, तभी भगवान कृष्ण वहा प्रगट हो गये और भूख का महत्व समझाया,

          इतना कहने के बाद मै बच्चे को समझाने लगा कि भूख बहुत खतरनाक होती है अब बच्चे की बारी थी बोला – अंकल अब ढींगे हाँकना बंद भी करो ये फालतू के  उदाहरण देना बंद करो हम इन फालतू बातो से बहकने वाले नही है आप मुझे ये बताओ कि वह अंधी औरत उसे कुछ दिखता नही वह बेर के झाड के पास कैसे गई ? वहा मृत शरीरो की बदबू आ रही थी तो उसको बेर की खुशबू कहा से आई, कई दिनो से युद्ध चल रहा था तो कितनी सेनाये वहा भगदड मचा रही थी फिर वह झाड कैसे बच गया ये सब झुठी बाते है फालतू बातो से हम जैसे बच्चे अब मानने वाले नही है,और कोई बात हो तो बताओ, मुझे ऐसे लगा कि ये कितना सोचते है इन्हे अब कितनी समझ आगई है हर बात का विश्लेषण करते है ये एक अच्छी बात थी

          यह एक छोटा सा उदाहरण था जो यह इंगित करता है कि ये कितने तेज और समझदार होते जा रहे है किसी भी सुनी सुनाई बात पर भरोसा नही करते, इनमे कितनी समझ आ गई है लेकिन एक जगह ऐसी है जहाँ हम हर बार मात खाते है वहा एनालाईसिस नही कर पाते वह जगह है हमारे चुनाव ...हमारे नेता...., चुनावो मे हमेशा मात ही खाते है सब जानते है लेकिन हर बार धोखे के  अलावा हमे कुछ भी नही मिलता,

          लेकिन अब आज का युवा इस बात को भी  बडी गंभीरता से ले रहा है, वह जान गया है अब फालतू ढींग हाँकने वाला हमे बार-बार धोखा नही दे सकता, अब बदलाव सम्भव हो सकता है एक बात सब मे कोमन नजर आती है कि सभी जन इस फालतु प्रपंच से निजात पाना चाहते है इन ढोंगी बाबाओ का फालतू प्रवचन और इन नेताओ के झुठे आश्वासन,झुठे भाषण,झुठे आडंबर से तंग आ गये है अब सब लोग यह कहने की हिम्मत जुटा चुके है और कहने लगे है कि – अब ढींग हाँकना बंद करो.....   
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Friday 4 September 2015

झूठ बोलना जरूरी है ?

झूठ बोलना जरूरी है ?


          बचपन से एक बात सुनते आये है कि सत्य बोलो,सच्चे का बोलबाला झुठे का मुँह काला, हमारे संस्कारो मे यह बात कुट कुटकर भरी गई है कि हमेशा सत्य ही बोलना चाहिये, भारत देश मे तो कहानिया भी सत्यवादी हरिश्चंद्र की सुनते सुनाते आये है, महात्मा गांधी ने भी सत्य पर बहुत ही प्रयोग किये है, फिल्म वालो ने भी गांधी के सत्य पर आधारित फिल्म भी बनाई है, मेरा मतलब कि चारो तरफ अभी भी सत्त्य का बोलबाला है, कोर्ट परिसर मे भी लिखा होता है “सत्यमेव जयते" 

          लेकिन यह सब क्या वास्तव मे होता है,आज कल सत्य बोलना एक अपराध हो गया है,मैं ने लोगो को झुठ बोलते, झुठ जीते, झुठी शान के लिये मरते मारते देखा है कल की ही बात है, मै ने एक राजनीति ग्रुप पर यह बात कह दी कि “आज कल नेता लोग एक भयंकर राजनीति कर रहे है कि पहले लोगो को डराते है फिर कुछ आशाये दिखाते है ,फिर बहलाते है फुसलाते है फिर उल्लू बनाकर लूटते है वोट या फिर .... चंदा” लोगो का ऐसे रियेक्शन आया जैसे मै ने उनके किसी खास अंग पर जलती छड रख दी हो, यह सत्य है लेकिन सत्य को फैशन के तौर पर यदि काम मे लेते है तो सही है यदि सत्य को जीवन मे कहने लगे तो आपको नुकशान हो सकता है, संस्कृत मे एक श्लोक है “ सत्यम ब्रुयात, प्रियम ब्रुयात, न ब्रुयात सत्यम अप्रियम” मै ने इस नियम की अवहेलना कर दी, आज के जमाने मे चाहे न्यायालय के आदेश की अवहेलना भले ही कर दो लेकिन यदि सामाजिक नियमो को तोडोगे या अवहेलना करोगे तो फिर देखलो क्या होने वाला है, मेरा नाम ग्रुप मे से वे लोग हटाते उससे पहले ही मै ने ग्रुप छोडने मे ही भलाई समझी,यह एक मामूली सी बात है लेकिन ऐसी हजारो बाते है जिससे यह लगता है की झुठ बोलना जरूरी है, राजनैतिक पार्टियो मे तो बहुत लोग है जो सत्य बोलने के चक्कर मे घनचक्कर बने घूम रहे है बेचारे गांधीजी की पार्टी का  तो सबसे बुरा हाल है वहा तो झुठ बोलना बहुत ही  जरूरी है,

          मेरे एक मित्र है “बल्डु” , जब उसको यह बात पता चली की डा.कौशिक के साथ किसी ने चुँ चपट करली तो चला आया मिलने, मै ने सोचा कोई सांत्वना देगा,कि कोई बात नही तु हमेशा सत्य ही बोलना यह अच्छी बात है सत्य की हमेशा विजय होती है,लेकिन उसने ठीक इसके उल्टे मुझे डाटना शुरू कर दिया कि क्यो सत्यवादी बना फिरता है तु जानता भी है कि सत्य क्या है , वह कुछ आध्यात्मिक होकर बोलने लगा-“ सत्य की खोज मे हजारो साल से संत महात्मा भटक रहे है अभी तक उन्हे मालूम नही चला कि सत्य क्या है और एक तु है कि चला है सत्य की पताका फैराने के लिये मै कुछ बोलता उससे पहले उसने अपनी ज्ञान पिटारी खोल दी और बोलने लगा – आज कल झुठ बोलना जरूरी है ,तुझे मालूम नही है मेरा एक्सीडेंट हो गया था पूलिस केस हो गया था और चालान पेश होने के बाद हम वकील से मिलने गये थे और एक वकील जो तेरे जैसे टुटी-फुटी सत्य झाडता है उसने कहा था कि इस क्लेम को पास कराने मे छ से बारह साल लगेंगे और हमने वह वकील ना करके जिसने साफ साफ झुठ कहा था कि महिने भर मे आप लोगो का क्लेम पास करवा दुंगा और हमने उसे वकालत नामा भर कर दे दिया था, 
           मुझे कुछ याद आ रहा था कि वह क्लेम दस साल बीत जाने के बाद अभी तक भी पास नही हुया है,मै ने सहमति मे सिर हिलाया, बल्डू फिर बोलने लगा – अभी साल भर भी नही हुआ मकान बनाये कारीगर ने तीन चार लाख का एस्टिमेट बताया था और कहा था कि काम शुरू करदो लेकिन कितना लगा? पुरे सात तो लग गये है और काम तो अभी बाकी है, तेरे को कुछ याद नही रहता तु खुद कई मरीजो को सही सही कह देता है कि इस बिमारी को ठीक होने मे दो तीन साल लगेंगे तो क्या रोगी तेरे से इलाज लेता है तुझे भी झुठ बोलना ही पडता है कि देखो रोग तो थोडा गम्भीर है दस पंद्रह दिन मे आराम आ जायेगा फिर इलाज चलता रहता है, चलता रहता है कई बार तो मरीज ही निकल लेता है बेचारा, लेकिन इलाज खत्म नही होता, 
          मेरे दोस्त ! आजकल सत्य बोलना सिर्फ दिखावा है वास्तव मे तो झुठ का ही बोलबाला है सत्य का मुह काला है , कही भी चले जाओ, घर से लेकर ओफिस तक, गांव से लेकर शहर तक, पंचायत से लेकर पी एम ओ तक, आकाशवाणी से लेकर दुरदर्शन तक, सब जगह झुठ का ही परचम फैला हुआ है,लोग तो मंदिर मस्जिद जहा  जगह मिले वही पर  झुठ बोल देते है आज कल नेतालोग धार्मिक लोग, सामाजिक लोग, जिसको देखो वह झुठ बोलने मे लगा है 
          मेरे मित्र ! आज कल लोग झुठ  फेंक फेंक कर देश के राजा तक बन जाते है, अरे भाई लोग सत्य की खोज मे लगे है, तु भी उसे ढुंढ यदि मिल जाये तो मुझे भी बतानालेकिन लोगो से पंगा मत लिया कर, इतना कह कर बल्डू ने विराम लिया, कुछ देर और कई बाते समझा कर चला गया,
          मै सोचने पर मजबूर हो गया कि सत्य बोलना क्या वाकई गलत है मेरा दिमाग भी इस चिंतन मे लग गया कि सत्य क्या है किसी को भी मालूम नही है,सत्य क्या समय के अनुसार बदल जाता है ? क्या सत्य बोलना मजबूरी हो गई है ? क्या लोगो ने सत्य पर भरोसा करना छोड दिया है ?  जहाँ तक मेरा मानना है समय सत्य है जो आत्मा को मालूम है झुठ बोलने वाला भी जानता है कि वह झुठ बोल रहा है लेकिन फिर भी झुठ बोलना तो बहुत ही जरूरी है और मजबूरी भी.., क्या सच्ची  मे झुठ बोलना जरूरी है ???        


Thursday 16 July 2015

मन क्यो भटक रहा है ....?

जब मै किसी भी व्यक्ति से मिलता हुँ तो वह अपने दुःखो का वर्णन करता है बार बार एक ही बात दोहराता है कि "मै बडा दुःखी हुँ" , या फिर कहेगा कि "ठीक हुँ पर आप जैसा सुखी नही हुँ" यह एक आदमी की सोच नही है यह सब लोगो की सोच हो गई है, सब कुछ है फिर भी कुछ भी नही है,
 महात्मा लोग कहते है कि यह सब मन का भटकाव है मन मे ही तरह तरह के सुख और दुख की तरंगे निकलती रहती है आधुनिक विज्ञान भी इस बात का समर्थन करता है कि ये सब मन मे उठने वाली तरंगे है इन को शांत करने से सुख  दुख का अहसास नही होता,
चिकित्सा करते समय कई बार ऐसी दवा का प्रयोग किया जाता है जो दर्द का अहसास नही होने देती, अब देखो दर्द तो है लेकिन दर्द का अहसास नही हो रहा क्योकि नर्वस सिस्टम को बंद कर दिया गया मस्तिष्क तक सुचनाये नही पहुँच रही इस लिये दर्द नही हो  रहा है, इसी प्रकार मन का भी यह ही हाल है हम जब मन की परिवेदनाये मस्तिष्क को पहुँचाहते है तो फिर सुख और दुख उत्पन्न होते है
"यह सब कहने की बाते है कोई भी इस जगत मे नही है जिसका मन भटकता नही हो"मेरे एक मित्र  ने मुझसे तत्काल ही पुछ लिया -"क्या आप जानते है ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो सुख दुख से दूर हो ?" मै सोचने लगा कि मेरी जान पहचान मे तो कोई भी ऐसे व्यक्ति का सामना नही हुआ फिर लोग क्यो हजारो उदाहरण देते है कि फलाँ आदमी ऐसा था, इसकी क्या वजह है , मै भी बैठा बैठा सोचता रहता हुँ कि कौन होगा ऐसा जो सुख दुख से दूर हो,
क्या परमात्मा के नाम पर दुकान चलाने वाले ऐसे होते है,या फिर जो पागल हो गये वे लोग ऐसे है, पागल हो सकते है क्योकि उनका मस्तिष्क  काम नही करता होगा शायद,  क्योकि दिमाग की क्रिया खराब हो जाती है तभी तो वह पागल कहलाता है और महात्मा जो दुकान चलाते है वे भी ज्यादातर भांग या गांजा के नशे मे धुत्त रहते है इसलिये उनका दिमाग भी कम  ही काम करता है ,इस लिये दिमाग तक परिवेदनाये जाती नही है और सुख दुख का अहसास होता ही नही है चाहे ये घटना कुछ देर तक ही क्यो ना, होती जरूर है , तब तो सभी नशेडी भी इसी श्रेणी मे आ जाते है, हो सकता है लोग इसीलिये शराब जैसे नशीले पदार्थो को पीते हो, कि इस लफडे से कुछ देर तो दूर रहे ,इस प्रकार की दवाईयाँ भी आती है जो सुख दुख का अहसास नही होने देती, लेकिन ये सब तो तरंग को कुछ देर ही शांत करती है कोई ऐसा है  जो कि हमेशा के लिये तरंगो को शांत कर चुका हो,
 कोई ना कोई तो होगा ही जो सुख दुख से दुर है क्योकि जब कोई भी नही था तो इतना सब प्रवचनो मे क्यो कहते है प्रत्येक महात्मा के  प्रोग्रामो मे यह बात कही जाती है क्यो ? इस बात का जबाव किस के पास होगा कौन बतायेगा ये सब कि मन क्यो भटक रहा है ....? और कैसे शांत होंगी ये मन की मस्तिष्क तक जाने वाली तरंगे .....?


Thursday 11 June 2015

आँसु निकल आते है..

                   अनजानी राहो पर कभी युँ ही पहुँच जाते है
                जवानी की दहलीज पर कदम बहक ही जाते है
रो पडते है देखकर जवानी की रंगीन तस्वीर
कभी बीते हुये दिन फिर लौट कर  नही आते है,
                     बनी हो तकदीर तो मित्र हजार होते है,
                  गर्दीश ए हालात मे अपने भी छोड जातेहै,
जिनके आने की खुशी दीप जलाकर मनातेहै
एक दिन वे ही रूलाकर चले जाते है
               दोस्तो के बीच बैठे हँसते रहते है हम,
               वो ही दोस्त एक दिन दुश्मन बन जाते है,
अपने जब गैरो से मिलकरबेगाने हो जाते है,
रो उठते है दिल और मन दहक जाते है,
               प्यार करते हो जिससे,तोड जाये गर वह दिल
               ,तो आँखो मे खुद-ब-खुद आँसू निकल आते है

Friday 3 April 2015

लोहा तरै काठ के पाण .......

 लोहा तरै काठ के पाण .......


       पिता जी के जाने के बाद मै माँ को मेरे पास लाने की जिद्द करने लगा था माँ का बिल्कुल भी मन नही था गांव छोडने का, लेकिन माँ तो माँ ही होती है बेटा चाये कैसा भी हो माँ कहना मान ही लेती है अपनी इच्छाओ को बली चढाना कोई सीखे तो माँ से सीखे, अब माँ मेरे पास आ गई थी अब मुझे पता चला कि बडे बुढो की सेवा करना कितना कठिन है और कितना आनंद दायक भी, मै ने पहली बार ही यह सोभाग्य प्राप्त किया था, मै सारे दिन माँ की सेवा मे लगा रहता था, माँ मुझे अपनी तीर्थ यात्रा के वृतांत सुनाती रहती थी जो यात्राये माँ पिताजी के साथ कर चुकी थी, हरिद्वार,केदारनाथ,वृंदावन,मथुरा आदि सभी जगह के अपने अनुभव मुझे खाली समय मे बताती रहती लेकिन जब द्वारिका का जिक्र आता तो माँ उदास हो जाती और कहती – तेरे पिताजी की बडी इच्छा थी द्वारिका के दर्शन करने की लेकिन नही कर पाये, इतना कहकर किसी गहरे विचारो मे खो जाती थी,माँ ही जगत मे एक ऐसा जीव है जो अपनी भावनाये दबा कर मुस्कुरा देती है  
       मै ने कभी भी नही सोचा था कि मै किसी तीर्थ की यात्रा इस समय कर पाऊंगा लेकिन मन मे विचार था कि माँ की इच्छा की पुर्ति तो करूंगा जरूर, लेकिन कब यह पता नही था, मुझे तीर्थ पर जाना तथा वहा का भीड भाड मे भटकना कतई पसन्द नही था, बच्चे भी छोटे थे और द्वारिका की दुरी करीब नौ सौ किलोमीटर थी सम्भव नही था, वैसे तो इस इलाके मे बहुत लोग इस प्रकार की यात्राये करवाते है उन्होने मुझे कई बार कहा भी था कि-“ डाक्टर साब आप लोग भी कभी हमारे साथ चलो”, लेकिन कभी भी प्रोग्राम नही बन पाया, इस बार भी उन लोगो ने यात्रा का प्रोग्राम बना रखा था और सीट भरने के लिये लोगो से सम्पर्क कर रहे थे,  लेकिन इस बार मुझसे नही मिले क्योकि मै कभी जाता तो था नही इसलिये वे लोग घर पर नही आये, उनका प्रोग्राम फिक्स हो गया, लगभग सभी सीटे भर गई थी और सभी का जाना तय हो गया था सिर्फ चार सीट खाली रह गई और अचानक वे लोग मुझसे टकरा गये कहने लगे – इस बार तो माँ जी भी आये हुये है उन्हे तीर्थ करवा दो, मै मना नही कर सका क्योकि कुछ तो माँ को तीर्थ करवाने का एक भावनात्मक भाव था दुसरा मेरा मन भी था लेकिन छुट्टी मिलने की समस्या और कुछ आर्थिक समस्या भी थी तो मै ने टालने के विचार से कह दिया कि “ यदि माँ तैयार हुई तो चल चलेंगे” और इतना कह कर मै उनसे पिछा छुडा कर वहा से चला गया,
        माँ ने साफ मना कर दिया माँ जानती थी कि मेरी आर्थिक स्थिती बहुत ठीक नही थी, माँ पिताजी खुद अपने बच्चो पर लाखो खर्च कर देंगे लेकिन बेटा बेटी का खर्चा कम से कम करवाने की कोशीश मे रहते है माता–पिता धरतीपर परमात्मा का रूप है जिस तरह परमात्मा अपने बच्चो को सिर्फ देता ही रहता है उसी तरह माता-पिता भी बच्चो को सिर्फ देना ही जानते है वापिस लेना उन्हे शायद भगवान  ने नही सिखाया,माँ के साफ मना करने के बाद भी वे लोग कहते रहे तो माँ ने   अपनी सेहत का बहाना बनाया कि मुझसे चला नही जायेगा मेरी इतनी हिम्मत नही है, उन लोगो ने एक ओफर रख दिया कि हम आपको आगे की सीट दे देंगे, तथा चलने की ज्यादा जरूरत ना पडे इस लिये गाडी को सीधे मंदिर तक ले जाने की व्यवस्था करा देंगे और तो और आप से बच्चो का आधा किराया लेंगे, अब बच्चो का भी मन हो गया और वे दोनो दादीमाँ को मनाने मे लग गये और कहते है ना कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है माँ का मन भी पसीज गया और माँ ने बच्चो का मन देख कर हामी भर दी और सीट बुक कर दी गई,

            अब देखो आशिर्वाद का प्रभाव मुझे छुट्टी भी आसानी से मिल गई और नौ दिन की यात्रा के लिये हम तैयार हो गये,कहते है लोहा अकेला कभी भी पानी मे तैर नही सकता लेकिन जब हल्की फुल्की काठ की लकडी का सहारा लेता है करोडो टन लोहा समुंद्र को पार कर देता है ऐसा ही कुछ इस आशिर्वाद मे होता है और यह आशिर्वाद यदि माता-पिता का हो तो फिर कहने ही क्या ?   सौराष्ट्र की यात्रा प्रारंभ हुई फिर बडे आनंद से यात्रा पुरी करके हम घर वापिस आये,यात्रा के दौरान सभी ने एक ही बात कही कि “लोहा तरै काठ के पाण..” हमारी यात्रा शायद कभी नही हो पाती माँ की वजह से हमे द्वारिकाधाम, सोमनाथ,नागेश्वर ज्योतिर्लिंग  की यात्रा का सौभाग्य मिला, माता-पिता को यात्रा करवाने का फल चाहे जो भी मिले लेकिन जो आत्मिक सुख तत्काल प्राप्त हुआ उसका वर्णन करना मुश्किल है , यात्रा मे खूब मजे किये उनका जिक्र अगली पोस्ट मे करूंगा,  

Thursday 5 March 2015

मेरा "अच्छा" नीला कोट.....

              मेरे पास एक नीला कोट है जिसे मै ब्लुजर कहता हुँ कोलेज के समय वह एक फैशन हुआ करता था बहुत ही कम लोगो के पास हुआ करता था मेरे पास था,मेरे कई दोस्त शादी विवाह के लिये या किसी समारोह मे भाग लेने के लिये उसे मांग का के ले जाते थे मै भी उसे शान से दे देता था लेकिन आजकल वह कोट मेरे किसी काम का नही है क्योकि तौंद ने बेडा गर्क कर दिया है, जब से तौंद आई है तब से वह आउट आफ डेट हो गया है मैने उसे फिट करने के लिये मेहनत भी खूब की लेकिन सफलता हाथ नही लगी,अब उसे रख दिया है
              लेकिन जब से मोदी जी का कोट करोडो मे बिका है तब से श्रीमती जी को पता नही क्या सुझा है कहती फिरती है कोट की निलामी करनी है मैने उसे खूब समझाया कि ये कोई सोने के तारो का कोट नही है ये सामान्य सा धागो का बना हुआ मामुली सा कोट है इसे बैच भी नही सकते इसे तो सिर्फ हम किसी गरीब भिखारी को सप्रेम भेंट दे सकते है वो भी यदि सप्रेम लेले तो,वरना ये तो फैंकने लायक हो गया है लेकिन वह तो मानती ही नही है कहती है आप इसे थोडा अच्छा अच्छा कहा करे फिर देखो इसके दाम लग जायेंगे, मैं ने पुछा ये अच्छा कहने से क्या होगा ? वह बोली- आप को इतना भी नही मालुम ये अच्छा शब्द तो बडा जादुई है , मैने पुछा-वो कैसे ? वह झल्ला उठी-बस आप तो रोजाना युँ ही अखबार चांटते रहते है कुछ भी सीखते नही हो, मै ने भी कुछ झल्ला के ही पुछा- अखबार मे ऐसा क्या आता है जो मेरे चांटने मे नही आता, वह कुछ समझाने वाली स्टाईल से बोली देखो - ये अच्छा शब्द है ना, ये बडे बडे जादू कर रहा है ये बात मैने अखबार मे ही पढी है, मैने कहा - मेरी तो कुछ समझ मे नही आ रहा, वह फिर बोली- देखो पहले तो मोदी जी ने "अच्छे दिन आने वाले है ..अच्छेदिन आने वाले है" कह कर जीत हाशिल करली और वो जीते तब तो उन्हे इतना महंगा कोट मिला और फिर करोडो रुपये मे निलाम हुआ है ये सब अच्छे शब्द का ही तो  कमाल है, मै उसे देख रहा था और वह देखो-देखो बोलती हुई कहती जा रही थी-" और देखो पीके फिल्म मे आमिर खान ने चार बार अच्छा अच्छा बोला और फिल्म ने चार सौ करोड का बिजनेस कर लिया, और देखो अरविंद केजरीवाल ने बार बार अपने आप को अच्छा कहा कि " मै अच्छा आदमी हुँ और सीएम बन गया, आप तो बस रोजाना कोई भी मिले उसे एक ही बात कहा करो कि मेरे पास  एक बहुत अच्छा कोट है मेरे लिये तो वह भाग्यशाली है मेरे पास जो भी कुछ है सब इस कोट की वजह से ही है
                 मैने उसे पुछा- भाग्यवान तु इस कोट के पिछे क्यो पडी हो कुछ समझाओगी , वह बोली - इस कोट को बेच कर कुछ तो हासिल होगा,जोभी हाशिल होगा उससे हम गंगा की सफाई तो नही करवा सकते लेकिन हमारी इस नाली की सफाई तो करवा ही सकते है आप तो इसे अच्छा अच्छा कहना शुरू करे,मैं ने कोट को अच्छा अच्छा कहना शुरू कर दिया लोग तो बडे अंध विश्वासी है बस पुछने लगे कहा से लाया है हमे भी चाहिये फिर क्या था हमने भी बोली का प्रोग्राम रख दिया और उस कोट की निलामी शुरू हुई क्या बात करते हो दुनिया इतनी बावली(पागल) है मुझे तब पता चला जब कोट की बोली लगने लगी और कोट की कीमत बढती ही गई ,कुछ लोगो की आपस मे होड लग गई कि कोट तो मुझे ही लेना है उनकी आपस की होड ने कोट को तो ऐसे बिका  दिया जैसा मैने तो सोचा भी नही था अब मुझे लगा शायद मोदी जी ने भी नही सोचा होगा कि द्स लाख का कोट इतने करोड दे जायेगा उसी तरह मुझे नही मालूम था कि ये मामुली सा नीला कोट बोली लगाने पर हजारो दे जायेगा लेकिन जनाब वह कोट आखिर बिक गया ,
                 घर मे अब शांति थी क्योकि अब धर्मपत्नी खुश थी मैने उससे कहा कि - नाली की सफाई कब शुरू करवानी है, धर्मपत्नी बोली - काहे की सफाई , आप तो इतना भी नही समझते कि मैने कोट बैच कर घर की सफाई करदी , मैने पुछा -फिर मोदी जी के कोट से गंगा जी की सफाई का उदाहरण क्यो दे रही थी,वह बडे ही शांति से बोली - मोदी जी ने कोई गंगा की सफाई के लिये कोट नही बैचा है ,मैने पुछा - फिर क्यो बैचा है , वह बोली- मोदीजी ने अपनी बदनामी करने वालो का मुँह बंद करने के लिये ये ड्रामा रचा था आप भी......इतना भी नही समझते.... इतना कहकर वह पल्लु फटकारते हुये किचन मे चली गई. मेरे मुँह से तो बस इतना ही निकला - अच्छा !!!!!!
               

Wednesday 25 February 2015

मस्त फागुन की भयानकता.......

               आज उस बात को लगभग बीस साल हो गये है लेकिन मुझे तो कल की सी बात लगती है जब भी चेहरा देखता हुँ आंख के नीचे का दाग दिखाई देता है और मुझे उस भयानक रात की याद दिला जाता है
               उस वक्त मै दसवी कक्षा मे पढता था बोर्ड की परीक्षा होने वाली थी होली का दिन था होली को मंगल कर दिया गया था और सभी लोग सोने की तैयारी मे थे लेकिन शराबी और झगडालू प्रवृति के लोगो को नींद नही आती और ये लोग  तो ऐसे मोको की तलास मे ही रहते है कि कब  कोई त्योहार आये और हम झगडा करके माहोल खराब करे ऐसे लोगो की वजह से ही त्योहारो का जश्न फिका पडता जा रहा है लोग डरने लगे है कि कोई बवंडर ना होजाये,इसी डर की वजह से समझदार लोग जल्दी ही काम निपटाकर घर बंद करने की कोशीश मेरहते है
               गांवो मे होली का त्योहार बहुत ही धुमधाम से मनाया जाता था फाल्गुन का महीना एक अजब सी कशिश लेकर आता था इस महिने मे तरह - तरह के सांग निकालना, लोगो के साथ हंसी ठिठोली करना राजस्थान मे एक बहुत ही शानदार परंपरा थी पुरा फागुन का महिना रंगो से भरा हुआ होता था, रात भर बहिन बेटिया होली माता के गीत गाती थी .. होली ये तेरो ब्याह रचावा.... होली ये  तेरो लाम्बो टीको ..... चांद चढ्यो गिगनार हिरनी आथुणी जी आथुणी ...... आदि सुरिले गीतो से पुरा मोहल्ला गुंजता था ऐसे गीत हर मोहल्ले मे, हर गांव मे , हर ढाणी मे गुंजते थे, बच्चे भी कई प्रकार के खेल खेलते थे .. चोर सिपाही ... आईस पाईस ... ढाईकिलो... पिठु...लुख-मीचण्या.. आदि खेलो का लुफ्त उठाते थे , बडे-बुजुर्ग चंग और धमाल से फागुन का मजा लेते थे ,युवा लोग कई प्रकार के रूप बना कर लोगो के घर मे जाते और उनका मनोरंजन करते थे , झुठ-मुठ का बच्चा बनाकर वैध जी के घर चले जाते,एक दो जने साथ होजाते और बोलते कि- बच्चा बिमार हो रहा है जल्दी से देखो ,और जब वैधजी देखने को तैयार होते तो... सभी जोरसे हो हल्ला करके भाग जाते,बडा मजेदार होता था ये त्योहार, लेकिन अब तो एक दुसरे पर रंग डालना भी डरावना सा लगता है,मजाक तो करने का सवाल ही नही उठता,
                उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था किसी लडके ने मजाक मे किसी से कुछ ठिठोली करली और उसमे कुछ लडकियाँ भी थी उन्हे ये हंसी मजाक पसंद नही आया और फिर क्या था बात का बतंगड हो गया और कुछ शरारती तत्वो और शराबियो ने माहोल को जाति बिरादरी का रंग दे दिया और भयानक झगडा हो गया ,मै घर पर पढाई कर रहा था बाहर झगडे की आवाज सुनकर देखने के लिये जाने लगा तो माँ ने मना भी किया लेकिन जो लोग माता -पिता का कहना नही मानते उन्हे कष्ट तो उठाना ही पडता है मुझे  भी कष्ट झेलना पडा, बाहर झगडा देखने गया और एक पत्थर मेरी आंख पर आकर लगा और एक भयानक दाग दे गया जिसे मै अब भी रोजाना देखता हुँ.. जो मुझे इस मस्त फागुन की भयानकता को दिखता है..
               लेकिन मै अब कैसे समझाऊ कि हम वे गीत, वे खेल,वे सांग, वे चंग और धमाल आज के बच्चो को बताना चाहता  हुँ आज के बच्चे कैसे जानेंगे ये सब रंगीले राजस्थान की रंगीली परम्पराये... कब शुरू होंगी फिरसे.....

Saturday 21 February 2015

मै प्रगति पथ का पथिक हुँ.....

             
             इस कविता को मेरे परमपुज्य पिताजी वैद्य श्री माल चंद जी कौशिक ने लिखा है मेरे पिता जी ने जीवन मे बहुत ही तप किया था उसी का भाव यहा प्रगट किया गया है पुज्य पिताजी को मैने मेरा आदर्श माना है मुझे उनकी प्रत्येक कविता से मार्ग दर्शन मिलता है उनके गुरु जी आचार्य श्री राम शर्मा (गायत्री परिवार) पिताजी को अक्सर भालचंद्र कहते थे इस लिये उन्होने अपनी कविताये ज्यादातर वैद्य भालचंद्र के नाम से ही लिखी है भालचंद्र सच मे महादेव शंकर जी के पुत्र श्री गणेश जी का नाम है जो कि बहुत ही सरल और सादगी प्रिय देवता है उसी तरह पिताजी का स्वभाव भी बडा ही सरल और सादगी पुर्ण था पिताजी को हम सभी परिवार वाले बापुजी कहते है,  बापुजी हमेशा कहते थे कि "पिता कभी मरते नही है पिता हमेशा जिंदा रहते है अपने बच्चो के व्यवहार मे,विचार मे" अब बापुजी  इस दुनिया मे नही है लेकिन मेरे मन मे उनके विचार अभी भी है और मेरे पास उनकी लिखी कविताये है जिन्हे मै मेरे जीवन मे उतारने की कोशीश करता हू ,इन कविताओ मे जीवन का रहस्य छुपा हुआ है-
              मै प्रगति पथ का पथिक हुँ विपद नद से क्यो डरुंगा
               सूख कर रह जायेगा यह,आचमन जब एक लुंगा

         राह मेरी रोक ले तुफान ऐसा कौनसा है
          गा ना पाऊँ मै प्रगति का गान ऐसा कौनसा है

         दुष्टता का दमन प्रतिदिन शिष्टता से मै करूंगा
         मै प्रगति पथ का पथिक हूँ विपद नद से क्यो डरूंगा

               आ मिली है प्राण सरिता मे प्रबलतम धार कोई
                कर रहा है मर्म स्थल पर,आज तीव्र प्रहार कोई

                कह रहा है यह अंधेरा, क्यो बता छाया यहाँ
                तु ठगा सा देखता है, लुट गया पौरूष कहाँ

    आग धधकी है ह्र्दय मे, ज्योति बनकर मै जलूंगा
   मै प्रगति पथ का पथिक हुँ विपद नद से क्यो डरुंगा

                  वैद्य भालचंद्र जी कौशिक "वैद्य जी बाबा जी"

              और भी बहुत कविताये है जिन्हे मै जब समय मिलेगा तब शेयर करता रहुंगा ..

Wednesday 14 January 2015

बल्ढु बना सरपंच

एक बार बल्ढुराम ने सरपंच बणबा की ली ठान,एक महिना पहल्या ही गुड बांट कर सरपंच लियो मान
दारू प्याणु शुरू करयो आठ दस की एक मंडली बनाई,कयाँसी आपाँ सरपंच बणा मन ही मन कई जुगत लगाई
बल्ढु सोच्यो प्रचार करुंगो और माहोल जोरको बनाउंगो,औरकोई खड्या होसी जिका न डरा के पाछो बिठाउंगो
कोई न धमकाउंगो,कोई न समझाउंगो,कोई न दारू पिलाउंगो, जो कतई ना मानेगो बीका पगा म पड जाउंगो
(2)बल्ढु के साथ वाला बल्ढु को प्रचार युँ करबा लाग्या,सरपंच तो बणसी या ना बणसी पण म्हारा भाग जाग्या
दारू म्हान रोज पिलाव गाडीयाँ मे घुमाव है,सरपंच चाहे ना बणेलो पण म्हान खुब खिलाव है
गुंडो है लफंगो है गयोबित्यो बेकार है, थप्पड देकर काम कराँ सकाँ हा यो आपणो अधिकार है
अ र गांव को टाबर है, गांव मे रहबालो छोरो है,अ ब क जिताज्यो बेचारो पंद्रह साल सूँ खड्यो होरयो है
कर्जा म डूब रियो है,हारया बर्बाद हो जावेलो,गांव को काम क र या ना क र ,खुद को घर तो बनावेलो
एक वोट का दान मे थारो  के बिगड जावेलो,गरीब घर को छोरो है,जिंदगी भर थारा गुण गावेलो
(3)एक ओडियो केसेट भी बल्ढु ने जैपुर सूँ भरवाई,बडो नेतो गांव मे आयो जणा बीच चोक म बजवाई
भाया न भाभी न स न ईयाँ कहणु है , वोट आपणो मिलकर बल्ढुराम  ही देणो है
(4) एक दिन बल्ढु भी भाषण की खूब झडी लगाई,ई गांव की खातिर मै अपनी जान की बाजी लगाई
कुआँ पर फर्जी बिजली लगार पानी की समस्या मिटाई,सेवा समीति बना कर बईमानी की हद पार कराई
बिजली की चोरी सिखाकर मै गांव को धन बचायो,बैंक सूँ लोन दिलार था न सरकारी पिसो खाबो सिखायो,
एक जणो बिदक र बोल्यो- अ र तेरे कन्न के सामान है , तु तो भाया लूट क खागो,तु तो जन्म जात बेईमान है
मै बेईमान था नही थे लोग ही मन्न बणा दिया,मै तो सीधा सादा हू मैने तो आप के घर का कचरा भी उठा दिया
रही बात सामान की मैने आगे-आगे दिखाया है,श्मशान घाट का हेंडपम्प मेरे घर के सामने लगवाया है
एक जणो बोल्यो-तु क्या उस हैंडपम्प से पानी पी रहा है,अरे भैया तूतो जिंदो की बस्ती मे मुर्दो की तरह जी रहा है
बल्ढु बोल्यो-छोडो ई बात नअब मै थाको हुकुम बजाउंगो,थेतो मन्न एकबार जिताद्यो,ईगांव ने आदर्शगांव बनाउंगो
(5)बल्ढु को विपक्षी नेतो भी रात्यूँ प्रचार करयो और करवायो, तीसरा नेता के खातिर ऐन टेम पर फार्म हटायो
बल्ढु को भाग खुल गो हनुमान जी कृपा भली करी,सारो गांव बल्ढु कानी होग्यो,बल्ढु की साग्योडी पार पडी,
कदे नही मंदिर मे जाबा लो चुनाव क दिन माथा मे सिंदूर म लगायो,
ढाणी सारी विपरीत थी ,पण गर्ज पर गधा न भी बाप बनायो
(6)चुनाव जीतने के बाद बल्ढु की नियत गोता खाने लगी,बल्ढु की किस्मत के साथ साथ्या की किस्मत भी जगी
बल्ढु बोल्यो-पण मन्न ज वोट ना दिया वा की अब खैर नही,एक जणो बोल्यो-भगवान के घर देर है अंधेर नही,
भाग्य सूँ जित्योडो हो ना कोई बल्ढु को उत्सव मनायो,धूमधाम सुँ दाम देकर खुद ही खुद को जुलूस निकलवायो,
पढ्या-लिख्या साथ्या सूँ,बढिया सो भाषण लिखवायो,बिना समझ्या ही बी भाषण न बल्ढु यूँ फरमायो
सुरज बदले चंदा बदले बदले चाहे जगत तमाम,यो बैईमानो को बाप ,ना बदलेगो बल्ढुराम
मेरा नाम की अब मोहर बनाओ और लगाओ,मेरा साथ्या न पावर देता हू चाहे आम चोक का भी पट्टा बनाओ,
बल्ढु की बाताँ सुनकर लोगाँ न हंसी आई भारी, मूसल के ध्वजा बांध दी,गांव की मति गई मारी,
बल्ढु का प्रचारी था ब मायँ-मायँ यू फुसफुसाया,बैरी जीतगो म्हे तो लोगाँ न बहुत भडकाया
बिल्ली का भाग को छिको टुटनो थो सो टुटगो,थे आज सुँ या समझल्यो,गांव को राम रूठगो,
(7)बल्ढु सरपंच बण्या पाछ ऊची उडान लगाई,प्रधान,विधायक और सांसद बणबा की योजना बनाई
हाथ उछाल-उछाल कर खूब भाषण देबा लाग्यो,इता मे ही बल्ढु को बापु बी का कमरा म आग्यो
बोल्यो-लाग है छोरा म ओपरी छाया आगी,छाया की बात सुनकर घरवाली आई भागी
उसने बल्ढु  को जोर से झिंझोडा और हिलाया,नींद मे सोते हुये को पानी डाल कर जगाया
बोली-अजी ये हाथ पांव नींद मे ही क्यो हिला रिया हो,ला ग है थे बारात को सपनो देखा कर नाच रिया हो
आंख्या खुली जणा मति ठिकाण आई, पल भर मे ही गुल होगी बल्ढु की सारी सरपंचाई

Sunday 4 January 2015

पी के मतलब पाकिस....न ?


हमारे एक परम मित्र है बल्ढूराम, एक नम्बर के घोर विरोधी , किसका विरोध करना है और किसका नही करना ये उन्हे नही मालूम लेकिन विरोध करना है बस, जो भी थोडा सा चर्चा मे हो जाये बस विरोध शुरु,चाहे जोधा अकबर सिरियल हो चाहे जय बजरंग बली दोनो का उन्होने विरोध दर्ज करवाया है दोनो मे गलत कहानी दिखाई जा रही है वह महाशय घर मे अपने माता पिता का विरोध करने से भी नही चुकते,
आज कल तो बडे ही विरोधी स्वर निकल रहे है उनके, एक फिल्म आई है पी के, जब इस फिल्म का पोस्टर आया था तब भी इन्होने घोर विरोध प्रगट किया था लेकिन इनका प्रचार तो हुआ नही उल्टा फिल्म का ही प्रचार हो गया अब फिल्म आ गई है इसलिये इसका विरोध करना है
मुझे सुबह सुबह ही मिल गये निवृत होकर आये थे मैंने टोक दिया – “भाई ! ये सब क्या है ? आप बाहर शौच के लिये जाते हो मोदी जी तो “सब को शौचालय” की बात करते है और आप है कि ......” मै और कुछ कहता इससे पहले ही बल्ढू जी बोल पडे – “यार आप भी क्या पुरानी बात लेके बैठे हो कोई ताजा बात करनी चाहिये”, मैने पुछा – “ये पुरानी कहा से हो गई और ताजा क्या है” , बल्ढू बोला – “मोदी जी को ये शौचालय वाली बात कहे दो तीन महिने हो गये और ताजा ताजा बात तो ये हिंदुओ की खिल्ली उडाने वाली फिल्म पी के है” बल्ढू थोडा क्रोध मे आ गया फिर से बोला – ये जो पी के है ना, इसका मतलब जानते हो क्या है ? मैंने कहा – नही भाई , “ इसका मतलब होता है पाकिस्तान “ मैने पुछा- “वो कैसे ?” वह बोला – “जैसे आर जे का राजस्थान, जी जे का गुजरात डी एच का दिल्ली वैसे ही पी के का पाकिस्तान” मैने उसको समझाया – “पी के का मतलब पियक्कड से है, इसका गलत अर्थ मत निकालो यार ये तो दंगा फसाद करवाने वाली बात है”, वह चिल्ला पडा – “हो जाने दो दंगा इससे क्या होता है हम क्या हमारे भगवान का मजाक उडाने की इजाजत ऐसे ही दे देंगे , नही देंगे,हम इस फिल्म को बंद करवा कर ही रहेंगे”, मैने फिर से पुछा – “इस फिल्म मे ऐसा क्या दिख गया, जो तुम इसकी एक देश से तुलना करने लग गये” ,वह बिफर पडा – “क्या हमारे देश के नेता जी युँ ही किसी पे इल्जाम लगायेंगे कि इस फिल्म मे अरब देशो तथा पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था का पैसा लगा है,और फिल्म को देखो तो पता लगे इसमे पुरा उसी देश का विवरण लिखा गया है, एक नंगा पंगा पान चबाता आदमी किसका प्रतीक है बताओ, ये पुरे उसी देश का प्रतीक है,” मुझे थोडी हंसी आ गई, बल्ढू गुस्से से बोला- “ये हंसने की बात नही है, आगे देखो वह राजस्थान से हमारे देश मे प्रवेश करता है उस देश के लोग भी इधर से ही घुसपैठ करते है , और भोजपुरी बोलता है वे लोग भी अपना अड्डा यु पी को ही बनाते है और दिल्ली मे रहता है” , बल्ढू फिर मुझसे पुछता है- “कौशिक जी ! आप बताओ लगभग फिल्मे मुम्बई की पृष्टभूमी पर ही बनती है ये दिल्ली पर क्यो ?,
 मैने उसे समझाते हुये कहा – “ये महज इत्फाक है ये कोई कारण नही है”
मैने बल्ढू को फिर से समझाने की कोशीश की – “और सुनो इस फिल्म की कहानी एक बहुत ही सुलझे हुये लेखक श्री अमिताब जोशी ने लिखी है और वो इसी देश के हिंदु है वो अंटशंट बाते क्यो लिखेंगे”, बल्ढू थोडा नरम पडा फिर बोला – “वो तो ठीक है लेकिन इसमे हिंदु धर्म की ही खिल्ली उडाई है हमारे बाबा , हमारे मंदिर, हमारे भगवान सब हमारे ही उनका कोई भी नही”, समझाते हुये मैंने कहा – “भाई ऐसा कुछ भी नही इस फिल्म मे सभी धर्मो की बात कही गई है किसी का धर्मांतरण वाला मुद्धा उठाया है , किसी का महिला शिक्षा का मुद्धा बताया है,” बल्ढू बीच मे ही बोल पडा – “लेकिन उनका मस्जिद तो सिर्फ बाहर से ही बताया है हमारा मंदिर मुर्ति सब का मजाक उडाया है हम तो इस बात का विरोध करेंगे”,अब मुझे थोडा गुस्सा आ गया थोडी ऊची आवाज मे मै बोलने लगा – “मजाक भगवान का नही सिर्फ पाखंड का उडाया है कुछ समझ मे आ रहा है तुझे”, मुझे क्रोध मे देख कर बल्ढू चुपचाप सुनता रहा मै उसे सुनाने लगा- “दयानंद सरस्वती जी ने भी पाखंडी एवम ढोंगी लोगो के लिये एक पताका फहराई थी “ पाखंड खंडन” ये समझ ये पी के भी उसी पाखंड खंडन का ही रूप है जा अपनी सोच बदल ...” मै और कुछ बोलता इतने मे ही मोहल्ले के कुछ बच्चे चिल्ला चिल्ला कर बोलने लगे ... और शौचालय बनवा .... सोच बदल .... और शौचालय बनवा…….. इति.