लोहा तरै काठ के
पाण .......
पिता जी के जाने के बाद मै माँ को मेरे पास लाने
की जिद्द करने लगा था माँ का बिल्कुल भी मन नही था गांव छोडने का, लेकिन माँ तो माँ ही होती है बेटा चाये कैसा भी
हो माँ कहना मान ही लेती है अपनी इच्छाओ को बली चढाना कोई सीखे तो माँ से सीखे, अब माँ मेरे पास आ गई थी अब मुझे पता चला कि बडे
बुढो की सेवा करना कितना कठिन है और कितना आनंद दायक भी, मै ने पहली बार ही यह सोभाग्य प्राप्त किया था, मै सारे दिन माँ की सेवा मे लगा रहता था, माँ मुझे अपनी तीर्थ यात्रा के वृतांत सुनाती
रहती थी जो यात्राये माँ पिताजी के साथ कर
चुकी थी, हरिद्वार,केदारनाथ,वृंदावन,मथुरा आदि सभी जगह
के अपने अनुभव मुझे खाली समय मे बताती रहती लेकिन जब द्वारिका का जिक्र आता तो माँ
उदास हो जाती और कहती – तेरे पिताजी की बडी इच्छा थी द्वारिका के दर्शन करने की
लेकिन नही कर पाये, इतना कहकर किसी गहरे विचारो मे खो जाती थी,माँ ही जगत मे एक ऐसा जीव है जो अपनी भावनाये दबा
कर मुस्कुरा देती है
मै ने कभी भी नही सोचा था कि मै किसी
तीर्थ की यात्रा इस समय कर पाऊंगा लेकिन मन मे विचार था कि माँ की इच्छा की पुर्ति
तो करूंगा जरूर, लेकिन कब यह पता नही था, मुझे तीर्थ पर जाना तथा वहा का भीड भाड मे भटकना
कतई पसन्द नही था, बच्चे भी छोटे थे और द्वारिका की दुरी करीब नौ
सौ किलोमीटर थी सम्भव नही था, वैसे तो इस इलाके
मे बहुत लोग इस प्रकार की यात्राये करवाते है उन्होने मुझे कई बार कहा भी था कि-“
डाक्टर साब आप लोग भी कभी हमारे साथ चलो”, लेकिन कभी भी
प्रोग्राम नही बन पाया, इस बार भी उन लोगो ने यात्रा का प्रोग्राम बना
रखा था और सीट भरने के लिये लोगो से सम्पर्क कर रहे थे, लेकिन
इस बार मुझसे नही मिले क्योकि मै कभी जाता तो था नही इसलिये वे लोग घर पर नही आये, उनका प्रोग्राम फिक्स हो गया, लगभग सभी सीटे भर गई थी और सभी का जाना तय हो
गया था सिर्फ चार सीट खाली रह गई और अचानक वे लोग मुझसे टकरा गये कहने लगे – इस
बार तो माँ जी भी आये हुये है उन्हे तीर्थ करवा दो, मै मना
नही कर सका क्योकि कुछ तो माँ को तीर्थ करवाने का एक भावनात्मक भाव था दुसरा मेरा
मन भी था लेकिन छुट्टी मिलने की समस्या और कुछ आर्थिक समस्या भी थी तो मै ने टालने
के विचार से कह दिया कि “ यदि माँ तैयार हुई तो चल चलेंगे” और इतना कह कर मै उनसे
पिछा छुडा कर वहा से चला गया,
माँ ने साफ मना कर दिया माँ जानती थी कि
मेरी आर्थिक स्थिती बहुत ठीक नही थी, माँ पिताजी खुद
अपने बच्चो पर लाखो खर्च कर देंगे लेकिन बेटा बेटी का खर्चा कम से कम करवाने की
कोशीश मे रहते है माता–पिता धरतीपर परमात्मा का रूप है जिस तरह परमात्मा अपने
बच्चो को सिर्फ देता ही रहता है उसी तरह माता-पिता भी बच्चो को सिर्फ देना ही जानते
है वापिस लेना उन्हे शायद भगवान ने नही
सिखाया,माँ के साफ मना करने के बाद भी वे लोग कहते रहे तो माँ ने अपनी सेहत का बहाना
बनाया कि मुझसे चला नही जायेगा मेरी इतनी हिम्मत नही है, उन लोगो ने एक ओफर रख दिया कि हम आपको आगे की
सीट दे देंगे, तथा चलने की ज्यादा जरूरत ना पडे इस लिये गाडी को
सीधे मंदिर तक ले जाने की व्यवस्था करा देंगे और तो और आप से बच्चो का आधा किराया
लेंगे, अब बच्चो का भी मन हो गया और वे दोनो दादीमाँ को
मनाने मे लग गये और कहते है ना कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है माँ का मन भी
पसीज गया और माँ ने बच्चो का मन देख कर हामी भर दी और सीट बुक कर दी गई,
अब देखो आशिर्वाद
का प्रभाव मुझे छुट्टी भी आसानी से मिल गई और नौ दिन की यात्रा के लिये हम तैयार हो
गये,कहते है लोहा अकेला कभी भी पानी मे तैर नही सकता लेकिन जब हल्की फुल्की
काठ की लकडी का सहारा लेता है करोडो टन लोहा समुंद्र को पार कर देता है ऐसा ही कुछ
इस आशिर्वाद मे होता है और यह आशिर्वाद यदि माता-पिता का हो तो फिर कहने ही क्या ? सौराष्ट्र की यात्रा प्रारंभ हुई फिर बडे आनंद
से यात्रा पुरी करके हम घर वापिस आये,यात्रा के दौरान सभी ने
एक ही बात कही कि “लोहा तरै काठ के पाण..” हमारी यात्रा शायद कभी नही हो पाती माँ
की वजह से हमे द्वारिकाधाम, सोमनाथ,नागेश्वर
ज्योतिर्लिंग की यात्रा का सौभाग्य मिला, माता-पिता को यात्रा करवाने का फल चाहे जो भी मिले लेकिन जो आत्मिक सुख
तत्काल प्राप्त हुआ उसका वर्णन करना मुश्किल है , यात्रा मे
खूब मजे किये उनका जिक्र अगली पोस्ट मे करूंगा,
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